फिर एक चाह हो फिर एक आह निकले ,
रोज़-रोज़ की ख्वाहिश का तोड़ स्वाह निकले।
फिर कोई खुश दिखे और फिर जलन के मारे,
गर्ममिज़ाजी में सर्दी का एक और सप्ताह निकले।
खूब बाज़ार लगते गर ईमान ही बेचना होता,
शाम ढली ,सामान समेटा,दौड़े जिधर सुबह निकले।
तालियों से घबराई ,है जाँ पड़ी सकते में,
जान निकले मेरी जब किसी मुंह से वाह निकले ।
खैर मेरा दिल टटोलने ..है कलेजा तो आगे आ,
मेरी जेब से ही आए दिन आठ-दस शुबहा निकले ।
होते होते भूलने लगता है कि ग़ज़ल शुरू क्यों हुई?
कुछेक मिसरे तो सिरे से खामख्वाह निकले।
धर सिर माथे चारस जो तेरा लिखा आएगा पढ़ने
जिसकी बाहर ख़ुदपरस्ती से निगाह निकले।
कोई बताये मुझे वो फूंक मार-मार हाथों को
मेरी किताब के पन्ने पलट रहे थे,
सर्दियों में ये नशा काफी होगा
बाद में चाहे अफवाह निकले।