शहर की चमचमाती दीवारों में वो सुकून नहीं
जो गांव के जर्जर घर में है,
सब कुछ पा के भी ठगी सी ज़िन्दगी,
आज फिर वापसी के सफर में है।
इन पहाड़ों से हो मेरी शिनाख्त
तुमसे ज्यादा रूबरू हैं मेरे दर्द से ये दरख्त ,
निकलते वक्त
यहां की मिट्टी का रंग ले गया था बालों में,
मिला कर देख रहा हूँ आज
कितना बदल गया इन सालों में।
गीत पंसदीदा होते थे कुछ , धुन याद आये तो गाएँ
ये पहाड़ ये आसमाँ मेरे पन्ने मेरा कैनवस
यहीं रची थीं कुछ कविताएं,
और उकेरे थे ख्वाब बिन कम्पस!
लौट कर वैसे आज भी नहीं आया हूँ,
बस कुछ शहरी दोस्तों को गांव दिखाने लाया हूँ।
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