Sunday, 8 November 2020

मशाल

 मैं भी उसी दौर में हूं

जो तुमने गुज़ारा या गुजारोगे

थोड़ा सा ही सही 

तुम्हें नहीं

तो हालात पहचानता हूं,

कुछ बुझे से बैठे हो,

कुछ चिंगारी को हवा देते हो,

और जब तब मशाल हाथ में लेते हो,

खुद से अपने क्या कहते हो?

कौन सा मकसद सधता है

किस जुगत में रहते हो?

तुम जानो 

तुम्हारा मकसद जाने

मुझे तुम्हारी आग से नहीं तपना

ना जलना

ना ताकत लेनी,

वह ज़िम्मा है तुम्हारा

इतने वक़्त से जो संभाली तुमने

उस उम्मीद उस यकीन का ज़िम्मा

तुम्हारा है,

मुझे मत दो,

नहीं संभाली जाए तो फेंक दो

या सहारा देते रहो,

बस मुझे मत दो,

जिसको मतलब होगा खुद तुमसे ले लेगा,

मेरी काम की होगी मैं मांग लूंगा

ज़रूरी हुई चुरा भी लूंगा,

तुम अपनी मशाल खुद संभालो,

आखिर तक जाने की आदत डालो 

या ना डालो।

बस मुझ तक मत आओ।

अपनी मशाल खुद जलाओ।


Thursday, 3 September 2020

कहते तो हैं

 कहते तो हैं कि तरसा करेंगे

मगर फिर जुदाई की दुआ किसलिए?


ना शाम ओ सुबह अपने गिरफ्त में ही हैं

इतनी शिद्दत से हमको रोका किसलिए?


दी ना गयी हमसे ढँग की एक दलील भी

कि हम हो गए हैं तबाह किसलिए?


मानी ना जाएगी तेरी बेगुनाही तू कुछ कर,

हाथ अपने दिल पर था रखा किसलिए?


वो जो विरासत में मिलते थे महलों के सुख

इश्क़ के किस्से में ज़िक्र उनका किसलिए?



उम्र ढल गयी, तेरा गुमान ना भूला(ढला)

लोग पूछते हैं बेबात "चारस" हँसा किसलिए?

Tuesday, 1 September 2020

समंदर की सैर

  

चढ़ा सिर फितूर कुछ


ये रही कश्ती पैर पर

चल समंदर की सैर पर


वक़्त की खामियां ज़रा

कुछ देर नज़रअंदाज़ हो

कल कल देखेंगे

आज ,आज ही आज हो,


सामने हो आईना


क्या नज़र गैर पर,

चल समंदर की सैर पर।



शुक्र मना आसाँ नही

कदम तोड़ रस्ता यह,

 नासमझ जुनूँ के लिए

सदियाँ तरसता यह,


मखमलों पर है लहू


और ज़ख्म पैर पर,

चल समंदर की सैर पर।


शिकायती ये दौर जब

उठा रहा था उँगलियाँ,

हम मग्न अपने सफर में

दौड़ा रहे थे कश्तियाँ,


मेरे दुश्मन, मेरे भाई,मेरे हमसाये,


तबियत की अपनी खैर कर,

चल समंदर की सैर पर।








क्या दिल पे गुज़री

 


क्या दिल पे गुज़री, कैसे गुज़ारा वक़्त ,

क्या बताएं  सच ,क्या सुनोगे अब,

ये जो बटोरी तुमने

उम्र दे कर समझ,

अच्छा है,

वर्ना

कल भी वही थे लफ्ज़,

आज भी वही हैं लफ्ज़।


Saturday, 11 July 2020

तू जोड़ ले ख़ुद को मेरी खामोशी से


तू जोड़ ले ख़ुद को मेरी खामोशी से ,
तो जन्म-जन्म का रिश्ता मिल जाए।

मत कर ये दूसरा किनारा हवाले मेरे,
कहीं दर्द के(ए) दरिया को जगह मिल जाये।

अजीब दिल मे आयी है लुट जाने की,
जैसे हुस्न से कोई बेपरवाह मिल जाये।

हमसफ़र हँस के खूब मिलता था जो
नाराज़ ही सही एक दफ़ा मिल जाये।

किस की सुनें ( सलाह) किसपे अमल करें
काश यही आखिरी सलाह मिल जाये।

Monday, 25 May 2020

रिक्त

यह उजाड़ खाली जगह देखी तुमने?
यहाँ एक बूँद को कहते सुना था मैंने
कि कितनी दुर्बल है वो,
यह रिक्त,
यहाँ एक समुद्र हो सकता था।

Sunday, 10 May 2020

ख्याल

बीच के पन्नों में कालिख पोतकर
खूबसूरत सी ज़िल्द चढ़ा दी है।
कुछ कद्दावर ख्याल जो कभी
मेरे हुआ करते थे,
नाज़ था जिनपे मुझे,
इसी कालिख के नीचे दफ़न हैं!
मैं इन ख्यालों जितना ना पहुँच पाया,
बस उम्र में बड़ा हो गया।

Saturday, 25 April 2020

चुनाव

धर्मांध से कहीं बेहतर है शराबी।
शराबी का नशा कभी तो उतरता है।
मैं शराब की पैरवी नहीं कर रहा।
बस  चुनाव कर रहा हूँ।
जैसे चुनाव में कम भ्रष्ट को वोट देते हैं ना!
ठीक वैसे।

Sunday, 29 March 2020

घर तो है Ghar to hai

रूठा है अभी ,मुकद्दर तो है
चलो क़ैद ही सही,घर तो है,

पाँव पसारने की गुंजाइश है
रात सर्द है,पर गर्माइश है,
नींद ही कम है,
बिस्तर तो है,
चलो क़ैद ही सही,घर तो है।

जुबां आज़ाद अब भी है
बोलने का सबब भी है,
नज़ारा भले तंग है
खुली-खुली नज़र तो है।
चलो क़ैद ही सही घर तो है।

कुछ उधर ऐसे भी लोग हैं
जिन्हें मुफ़लिसी का रोग है।   मुफ़लिसी -poverty
वो आँख भूख से जगी रही
और हमें दाल अच्छी लगी नहीं,
कोई साथ नहीं उनके,
अरे हाँ । डर तो है।
क़ैद ही सही,घर तो है।
रूठा है अभी, मुकद्दर तो है।



दैत्य

  दैत्य   झुँझलाहट की कोई ख़ास वजह नहीं सुना सकूँ इतना ख़ास हादसा भी नहीं , नुचवा लिए अब ख़्वाबों के पंख नहीं यहाँ तक कि...