चढ़ा सिर फितूर कुछ
ये रही कश्ती पैर पर
चल समंदर की सैर पर
वक़्त की खामियां ज़रा
कुछ देर नज़रअंदाज़ हो
कल कल देखेंगे
आज ,आज ही आज हो,
सामने हो आईना
क्या नज़र गैर पर,
चल समंदर की सैर पर।
शुक्र मना आसाँ नही
कदम तोड़ रस्ता यह,
नासमझ जुनूँ के लिए
सदियाँ तरसता यह,
मखमलों पर है लहू
और ज़ख्म पैर पर,
चल समंदर की सैर पर।
शिकायती ये दौर जब
उठा रहा था उँगलियाँ,
हम मग्न अपने सफर में
दौड़ा रहे थे कश्तियाँ,
मेरे दुश्मन, मेरे भाई,मेरे हमसाये,
तबियत की अपनी खैर कर,
चल समंदर की सैर पर।
No comments:
Post a Comment