हर बार बदला बदला लगता है।
मिलूं तो हंसता है,
ना मिलूं तो हंसता है,
ये शहर मना कर देता है
मेरी जागीर होने से।
और मैं इसकी ज़िद का
झूठा ही सही
मुरीद हूं।
मेरी तरकीब के जवाब में
जब ये खेल बदलता है,
एक दूसरे की शक्ल देख,
हम दोनों ठहाका लगाते हैं।
दैत्य झुँझलाहट की कोई ख़ास वजह नहीं सुना सकूँ इतना ख़ास हादसा भी नहीं , नुचवा लिए अब ख़्वाबों के पंख नहीं यहाँ तक कि...
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