पहाड़ पिस रहे हैं
कहीं मैदान जल रहा है ,
मुल्क बनाने का काम चल रहा है
बस्तियाँ बसने लगीं, लोग उजड़ने लगे हैं ,
मैंने सुना है हम आगे बढ़ने लगे हैं।
नदियाँ कस दी गईं ,सरहदें खींच दीं गईं ,
कान ढक लिए गए ,आँखें मींच दी गईं ,
मन है कि फिर भी बेतहाशा मचल रहा है,
मुल्क बनाने का काम चल रहा है।
सामान महँगा हुआ जाता है
ईमान सस्ता,
पहले कभी देखा नहीं गया इतना इंसान सस्ता ,
दो पल के आराम के लिए लग रहा
उम्र भर का सुकून दांव पर ,
चपल - चालाक शहर भारी पड़ रहे
सीधे-सादे गाँव पर,
हालात बदलते हमने नहीं देखे
हाँ !
बर्ताव ज़रूर बदल रहा है ,
मुल्क बनाने का काम चल रहा है।
इतनी भीड़, मारामारी ,
जहाँ देखो सर ही सर ,
कि बामुश्किल ही नसीब है आधा-पौना सा घर ,
उधर मंदिरों में बैठे पत्थर ऐश में,
इधर सड़कों पर घूम रहे बेरोज़गार तैश में ,
पारा चढ़ रहा है ,लावा पिघल रहा है ,
मुल्क बनाने का काम चल रहा है।
मुल्क बनाने का काम चल रहा है।
कहीं मैदान जल रहा है ,
मुल्क बनाने का काम चल रहा है
बस्तियाँ बसने लगीं, लोग उजड़ने लगे हैं ,
मैंने सुना है हम आगे बढ़ने लगे हैं।
नदियाँ कस दी गईं ,सरहदें खींच दीं गईं ,
कान ढक लिए गए ,आँखें मींच दी गईं ,
मन है कि फिर भी बेतहाशा मचल रहा है,
मुल्क बनाने का काम चल रहा है।
सामान महँगा हुआ जाता है
ईमान सस्ता,
पहले कभी देखा नहीं गया इतना इंसान सस्ता ,
दो पल के आराम के लिए लग रहा
उम्र भर का सुकून दांव पर ,
चपल - चालाक शहर भारी पड़ रहे
सीधे-सादे गाँव पर,
हालात बदलते हमने नहीं देखे
हाँ !
बर्ताव ज़रूर बदल रहा है ,
मुल्क बनाने का काम चल रहा है।
इतनी भीड़, मारामारी ,
जहाँ देखो सर ही सर ,
कि बामुश्किल ही नसीब है आधा-पौना सा घर ,
उधर मंदिरों में बैठे पत्थर ऐश में,
इधर सड़कों पर घूम रहे बेरोज़गार तैश में ,
पारा चढ़ रहा है ,लावा पिघल रहा है ,
मुल्क बनाने का काम चल रहा है।
मुल्क बनाने का काम चल रहा है।
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