Monday, 18 March 2024

दैत्य

 दैत्य 



झुँझलाहट की कोई ख़ास वजह नहीं

सुना सकूँ इतना ख़ास हादसा भी नहीं ,

नुचवा लिए अब ख़्वाबों के पंख नहीं

यहाँ तक कि मामूली पतंग भी नहीं ,

एक चींटी किधर भटकी 

चढ़ती सीढ़ी मौत की 

कहीं रह गई 

या पहुँची ,

परवाह किसे 

कि आये पूछ उसे ,

साबुत निगल गया 

समाज उसे,

ये दैत्य जो अमर है

पूज उसे।

Monday, 5 September 2022

ठहाका

 हर बार बदला बदला लगता है।

मिलूं तो हंसता है,

ना मिलूं तो हंसता है,

ये शहर मना कर देता है

मेरी जागीर होने से।

और मैं इसकी ज़िद का

झूठा ही सही

मुरीद हूं।

मेरी तरकीब के जवाब में

जब ये खेल बदलता है,

एक दूसरे की शक्ल देख,

हम दोनों ठहाका लगाते हैं।

नहीं आता कोई पीछे

 नहीं आता कोई पीछे,

ना साथ ही होगा,

हाँ। बियाबान में भटका,

हर एक आदमी होगा।


बहुत किस्से सुने ,बहुत तेज़ जुबां में,

शहर हामी भरता है, तो सही होगा।


कभी अपनी खुशी से खौफजदा ,

कभी अपने गम पे तसल्ली,

फिर ।

फिर ऐसा रोज़ ही होगा।




Sunday, 8 November 2020

मशाल

 मैं भी उसी दौर में हूं

जो तुमने गुज़ारा या गुजारोगे

थोड़ा सा ही सही 

तुम्हें नहीं

तो हालात पहचानता हूं,

कुछ बुझे से बैठे हो,

कुछ चिंगारी को हवा देते हो,

और जब तब मशाल हाथ में लेते हो,

खुद से अपने क्या कहते हो?

कौन सा मकसद सधता है

किस जुगत में रहते हो?

तुम जानो 

तुम्हारा मकसद जाने

मुझे तुम्हारी आग से नहीं तपना

ना जलना

ना ताकत लेनी,

वह ज़िम्मा है तुम्हारा

इतने वक़्त से जो संभाली तुमने

उस उम्मीद उस यकीन का ज़िम्मा

तुम्हारा है,

मुझे मत दो,

नहीं संभाली जाए तो फेंक दो

या सहारा देते रहो,

बस मुझे मत दो,

जिसको मतलब होगा खुद तुमसे ले लेगा,

मेरी काम की होगी मैं मांग लूंगा

ज़रूरी हुई चुरा भी लूंगा,

तुम अपनी मशाल खुद संभालो,

आखिर तक जाने की आदत डालो 

या ना डालो।

बस मुझ तक मत आओ।

अपनी मशाल खुद जलाओ।


Thursday, 3 September 2020

कहते तो हैं

 कहते तो हैं कि तरसा करेंगे

मगर फिर जुदाई की दुआ किसलिए?


ना शाम ओ सुबह अपने गिरफ्त में ही हैं

इतनी शिद्दत से हमको रोका किसलिए?


दी ना गयी हमसे ढँग की एक दलील भी

कि हम हो गए हैं तबाह किसलिए?


मानी ना जाएगी तेरी बेगुनाही तू कुछ कर,

हाथ अपने दिल पर था रखा किसलिए?


वो जो विरासत में मिलते थे महलों के सुख

इश्क़ के किस्से में ज़िक्र उनका किसलिए?



उम्र ढल गयी, तेरा गुमान ना भूला(ढला)

लोग पूछते हैं बेबात "चारस" हँसा किसलिए?

Tuesday, 1 September 2020

समंदर की सैर

  

चढ़ा सिर फितूर कुछ


ये रही कश्ती पैर पर

चल समंदर की सैर पर


वक़्त की खामियां ज़रा

कुछ देर नज़रअंदाज़ हो

कल कल देखेंगे

आज ,आज ही आज हो,


सामने हो आईना


क्या नज़र गैर पर,

चल समंदर की सैर पर।



शुक्र मना आसाँ नही

कदम तोड़ रस्ता यह,

 नासमझ जुनूँ के लिए

सदियाँ तरसता यह,


मखमलों पर है लहू


और ज़ख्म पैर पर,

चल समंदर की सैर पर।


शिकायती ये दौर जब

उठा रहा था उँगलियाँ,

हम मग्न अपने सफर में

दौड़ा रहे थे कश्तियाँ,


मेरे दुश्मन, मेरे भाई,मेरे हमसाये,


तबियत की अपनी खैर कर,

चल समंदर की सैर पर।








क्या दिल पे गुज़री

 


क्या दिल पे गुज़री, कैसे गुज़ारा वक़्त ,

क्या बताएं  सच ,क्या सुनोगे अब,

ये जो बटोरी तुमने

उम्र दे कर समझ,

अच्छा है,

वर्ना

कल भी वही थे लफ्ज़,

आज भी वही हैं लफ्ज़।


दैत्य

  दैत्य   झुँझलाहट की कोई ख़ास वजह नहीं सुना सकूँ इतना ख़ास हादसा भी नहीं , नुचवा लिए अब ख़्वाबों के पंख नहीं यहाँ तक कि...