Monday, 5 September 2022

ठहाका

 हर बार बदला बदला लगता है।

मिलूं तो हंसता है,

ना मिलूं तो हंसता है,

ये शहर मना कर देता है

मेरी जागीर होने से।

और मैं इसकी ज़िद का

झूठा ही सही

मुरीद हूं।

मेरी तरकीब के जवाब में

जब ये खेल बदलता है,

एक दूसरे की शक्ल देख,

हम दोनों ठहाका लगाते हैं।

नहीं आता कोई पीछे

 नहीं आता कोई पीछे,

ना साथ ही होगा,

हाँ। बियाबान में भटका,

हर एक आदमी होगा।


बहुत किस्से सुने ,बहुत तेज़ जुबां में,

शहर हामी भरता है, तो सही होगा।


कभी अपनी खुशी से खौफजदा ,

कभी अपने गम पे तसल्ली,

फिर ।

फिर ऐसा रोज़ ही होगा।




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