Wednesday, 28 November 2018

कहाँ जैसे ? (Kahan jaise?)


कहाँ जैसे?
बन तू जाता है एहसास मेरा,
कब तुझे आता है होश
मेरे बारे में
जब फिरता है दिन दुनिया भुलाये सारे में
कहाँ जैसे पुकारती है सोच
नाम मेरा

कहाँ जैसे?
 नज़र वापिस आती है
रास्ता भुलाने का डर
तुझे नहीं आता क्या
कोई साया बढ़कर पीठ नहीं खटखटाता क्या
नहीं होता क्या धुंधला घर
राह बिछड़ते हुए ज़रा सी साँस तो घबराती है

कहाँ जैसे?
बहाता है आँसू, किसके पास
या सचमुच ही तू पथराया
जब बोलकर जाता है अभी आया
होकर कहाँ से आता है सच बता
अगर मैं हूँ कमज़ोर तो आहिस्ता-आहिस्ता....

या इशारा कर हल्का सा छोड़ेगा साथ
कहाँ जैसे?

~गौरव चारस नेगी~

Saturday, 24 November 2018

Iss Paar Mai,Uss Paar Tum ( इस पार मैं,उस पार तुम )

तुम रूठ मत जाना
मुझे मुशिकल से साँस आती है इस ख्याल से भी,
पता है तुम हँस दोगी, थोड़ी देर में
कर लोगी सुलह अपने हाल से भी।

धीरे-धीरे फैलता मुझमें, कोई ज़हर
महज़ आँसू नहीं छलकता तुम्हारी आँखों से,
मैं ठीक उतना ही डरा सा हूँ
जितना गैरमौजूद हौसला तेरी बातों से।

दूरियों की लकीरों पर जमते-जमते परत
दीवार सी खड़ी होने लगी,
इस पार मैं,उस पार तुम,
पुकारो,  कि गुमशुदी होने लगी।

तीन-चार दिन मिलना, हंस के मिलना,
कर तो लेते हो,
चेहरा बयाँ करता है
किस तकलीफ का बैठे गला रेते हो।

और साँस रोके मैं खड़ा
कर रहा इंतज़ार
मंज़िल के आने का,
नहीं!
हमसफर के छोड़ जाने का।

Friday, 4 May 2018

वो कारवां

वो कारवां निकल गया है दूर कहीं दूर....
ना दीदार में नशा रहा ना आंख में सुरूर।

साथ कोई चलता हो तो बेशक चले,
हार कर ताकि राह में लगा सकें गले,

उस गली जाना है जहाँ के गम मशहूर,
जहां होता नहीं नशा अगले रोज़ काफूर।

उम्र सी गुज़री पर ज़ेहन में ताजा ही रही
आंख भर भर मिलती रही वो छोटी सी कमी

क्या क्या ना करा गया इश्क़ का फितूर,
करीबी भी अचरज करें,के ऐसे भी हैं हुज़ूर।

हैं सिलवटों में अब भी उतनी ही करवटें ,
आखिर कोई बिस्तर तो हो जहां नींद भी बँटे,

हर पहलू हक़ीक़त है, वो ख्वाब सुदूर
शिकायत भी मैं करूँगा और जीना भी है ज़रूर।
(Shikayat bhi maine ki, jeeya bhi bharpur)

वो कारवां निकल गया है दूर कहीं दूर....
ना दीदार में नशा रहा ना आंख में सुरूर

दैत्य

  दैत्य   झुँझलाहट की कोई ख़ास वजह नहीं सुना सकूँ इतना ख़ास हादसा भी नहीं , नुचवा लिए अब ख़्वाबों के पंख नहीं यहाँ तक कि...