Wednesday, 10 February 2016

बेडियाँ (Bediyan)


सदियों कि मशक्कत और एक लम्हे की हिम्मत,
बेडियाँ  टूटने लगी थीं।
सही-गलत, बुरा-भला,
किताबों से पढ़ कर खून में नहीं उतरे!
मुंह से निकले लफ़्ज़ पलट कर गाल पर पड़े,
सवालों की खड़ी कौम से डरते-डरते छिटपुट जवाब गडे़,
सुनसान-अकेले जिन पर उंगली उठाई
उन तोहमतों से जब भीड़ में भी नहीं मुकरे,
बेडियाँ  टूटने लगी थीं।

अपने सपनों में पैसा, रूतबा कहाँ था?
एक छत थी, दोस्त-यार थे, परिवार था।
पता चला छत के लिए जरूरी थी चारदीवारी,
पता चला सिर्फ़ बचपन तक थी सगी दोस्ती-यारी,
पता चला मां-बाप के अलावा रहते थे,
परिवार में भूख, बुढ़ापा और बीमारी!
जिन्दा सिरों से फ़र्क कर गए मुर्दा जिस्म
ना बुढ़ापे ने सताया, ना भूख ने जगाया,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी लेखा-जोखा समेट सो गयी कब्रें,
बेडियाँ  टूटने लगी थीं।

ये मेरा है, वो भी मेरा
ये मुझे चाहिए, इसकी मुझे जरुरत,
मेहमानों का ऐसा बर्ताव ठीक लगता है क्या?
ना ज़मीन मेरी, ना हवा, ना मौसम-बादल-आसमान पर मेरा हक,
बस वक्त अपना पल भर,
उसे खुश रखना हक मेरा, फ़र्ज मेरा,
बेडियाँ तोड़ कर चुके शायद कर्ज मेरा।

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