Saturday, 27 February 2016

नन्हीं कोमल (Nanhi Komal)


नन्हीं कोमल किसी मेमने सी दुबकी हुई मासूमियत में... 
मेरी नज़र से पढ़ना अपनी शख़्सियत इस ख़त में...

कई रंग तुमसे हुए हैं शुरू तुम्हें क्या खबर... 
मेरे उल-जू-लूल अल्फ़ाज़ों की ग़ज़ल तुमने बनायी है पढ़ कर...

ना चुराने दो वक़्त को अपने मोतियों से ख्याल... 
मेरे बर्ताव की झलक सा है खाली सीपियों का हाल... 
 
गूंगी शाखों पर फूटने लगे हों स्वर कोंपलों जैसे... 
हर जुबान में बोली जाओगी तुम मीलों ऐसे...

मैने सुना है हर दर्द तुम्हारा आंसुओं के हवालों से
पलकें उतर कर जो होंठों पर टिके, हो रेशमी गालों से,

ऐसे ही कितने किस्से कहे तुमने होंठ पर रख-रखकर... 
और समझे हैं मैने हू-ब-हू इन्हीं प्यालों से चखकर,

मानो उड़कर लगा हो समंदर आगोश रेगिस्ताँ के... 
अच्छा तो करती है एक घूंट यूँ अरमान खामोश रेगिस्ताँ के... 
 
जलना आकर मेरी बाँहों की तपिश में... 
जिस्म बेपर्दा किये पिघलने की ख़्वाहिश में...

उलझे रहना उंगलियों में उंगलियाँ छुपाने... 
शायद लकीरें मिलती हों हथेलियों के बहाने...






Wednesday, 10 February 2016

बेडियाँ (Bediyan)


सदियों कि मशक्कत और एक लम्हे की हिम्मत,
बेडियाँ  टूटने लगी थीं।
सही-गलत, बुरा-भला,
किताबों से पढ़ कर खून में नहीं उतरे!
मुंह से निकले लफ़्ज़ पलट कर गाल पर पड़े,
सवालों की खड़ी कौम से डरते-डरते छिटपुट जवाब गडे़,
सुनसान-अकेले जिन पर उंगली उठाई
उन तोहमतों से जब भीड़ में भी नहीं मुकरे,
बेडियाँ  टूटने लगी थीं।

अपने सपनों में पैसा, रूतबा कहाँ था?
एक छत थी, दोस्त-यार थे, परिवार था।
पता चला छत के लिए जरूरी थी चारदीवारी,
पता चला सिर्फ़ बचपन तक थी सगी दोस्ती-यारी,
पता चला मां-बाप के अलावा रहते थे,
परिवार में भूख, बुढ़ापा और बीमारी!
जिन्दा सिरों से फ़र्क कर गए मुर्दा जिस्म
ना बुढ़ापे ने सताया, ना भूख ने जगाया,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी लेखा-जोखा समेट सो गयी कब्रें,
बेडियाँ  टूटने लगी थीं।

ये मेरा है, वो भी मेरा
ये मुझे चाहिए, इसकी मुझे जरुरत,
मेहमानों का ऐसा बर्ताव ठीक लगता है क्या?
ना ज़मीन मेरी, ना हवा, ना मौसम-बादल-आसमान पर मेरा हक,
बस वक्त अपना पल भर,
उसे खुश रखना हक मेरा, फ़र्ज मेरा,
बेडियाँ तोड़ कर चुके शायद कर्ज मेरा।

दैत्य

  दैत्य   झुँझलाहट की कोई ख़ास वजह नहीं सुना सकूँ इतना ख़ास हादसा भी नहीं , नुचवा लिए अब ख़्वाबों के पंख नहीं यहाँ तक कि...