नन्हीं कोमल किसी मेमने सी दुबकी हुई मासूमियत में...
मेरी नज़र से पढ़ना अपनी शख़्सियत इस ख़त में...
कई रंग तुमसे हुए हैं शुरू तुम्हें क्या खबर...
मेरे उल-जू-लूल अल्फ़ाज़ों की ग़ज़ल तुमने बनायी है पढ़ कर...
ना चुराने दो वक़्त को अपने मोतियों से ख्याल...
मेरे बर्ताव की झलक सा है खाली सीपियों का हाल...
गूंगी शाखों पर फूटने लगे हों स्वर कोंपलों जैसे...
हर जुबान में बोली जाओगी तुम मीलों ऐसे...
मैने सुना है हर दर्द तुम्हारा आंसुओं के हवालों से
पलकें उतर कर जो होंठों पर टिके, हो रेशमी गालों से,
ऐसे ही कितने किस्से कहे तुमने होंठ पर रख-रखकर...
और समझे हैं मैने हू-ब-हू इन्हीं प्यालों से चखकर,
मानो उड़कर लगा हो समंदर आगोश रेगिस्ताँ के...
अच्छा तो करती है एक घूंट यूँ अरमान खामोश रेगिस्ताँ के...
जलना आकर मेरी बाँहों की तपिश में...
जिस्म बेपर्दा किये पिघलने की ख़्वाहिश में...
उलझे रहना उंगलियों में उंगलियाँ छुपाने...
शायद लकीरें मिलती हों हथेलियों के बहाने...