Saturday, 30 April 2016

सच लिखूँ तो ? (Sach Likhun Toh? )


सच लिखूं तो पकड़ा ना जाऊं
इस डर से परेशाँ  हूँ।
मेरा एक मज़हब है,
मेरी कलम का नहीं।

कहा मुहब्बत के बारे में काफी से कहीं ज़्यादा,
सिर्फ इसलिए कि कोई छोर इस ईल्म का नहीं।

घर छोड़ निकला
रोज़ी रोटी के बंदोबस्त में,
माँ पूछे तो कहता हूँ खाना हज़म का नहीं।

साये से भी ऐहतियात
बरते ज़ुबान समझदार
वरना कौन सा सवाल आखिर जोख़िम का नहीं।

दिन डकार गईं, रातें लील
महंगी ख्वाहिशों को क्या पता,
सूरज किधर निकला ? चाँद चमका नहीं।

सींचने लगो बीज ईमान का 'चारस' इस दौर में,
सुनने आता है कि
ये फल इस मौसम का नहीं।

छेद थाली में फरेब ने नहीं
खुरच कर जीभ से भूख ने किये,
ना सोचो मुल्क़ लगाता हिसाब ज़ुल्म का नहीं।

धर्म धर्म का कोना पकडे
लहूलुहान ईश्वर कर डाला,
ज़ख़्म सहलाने आया ख़ुदा
आज तक तो आतंक का नहीं।

मुंह तक मुहैया निवाले
हम फरामोशों को मय दो,
दावत रखती है दोस्तों का ख्याल
ज़रूरतमंद का नहीं।

हिदायतें नेकदिली की जिस जुबान से टपकती हैं,
दस्तूर है मिलेगा
खरीदार उस नज़्म का नहीं।











दैत्य

  दैत्य   झुँझलाहट की कोई ख़ास वजह नहीं सुना सकूँ इतना ख़ास हादसा भी नहीं , नुचवा लिए अब ख़्वाबों के पंख नहीं यहाँ तक कि...